Monday, September 13, 2010

दलित महिला उत्पीड़न

जब प्रदेश की कमान एक दलित और महिला के हाथ में हो तब बलात्कार और हत्या के आंकड़ों पर गौर करना और भी जरूरी हो जाता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक प्रदेश में 2008 में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की 375 घटनाएं हुई थीं. 2007 में जब मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं तब यह आंकड़ा 318 था और उसके एक साल पहले यानी 2006 में इस तरह के 240 मामले सामने आए थे.
ये सरकारी आंकड़े हैं. प्रदेश में बलात्कार की ऐसी कई घटनाएं भी होती हैं जो कभी पुलिस थानों में दर्ज नहीं हो पातीं. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि देश भर में दलित उत्पीड़न की सबसे ज्यादा घटनाएं उत्तर प्रदेश में होती हैं. उसके बाद बिहार और मध्य प्रदेश स्थान आता है. प्रशासन के लिए दलित महिलाओं के साथ बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं के अपने तर्क हैं. पहला यह कि राज्य में दलितों की आबादी सबसे ज्यादा 21 फीसदी है, इसलिए ऐसे मामले ज्यादा होने की वजह स्वाभाविक है. दूसरा तर्क देते हुए राज्य के पुलिस निदेशक करमवीर सिंह कहते हैं कि दलितों का सशक्तीकरण हुआ है और अब वे ऐसे मामलों में चुप होकर नहीं बैठते.

' दलितों का उत्पीड़न होता है लेकिन मानवाधिकार से जुड़ी और भी घटनाएं होती हैं.' आयोग से मिले आंकड़े दिखाते हैं कि 2008 में दलित उत्पीड़न से जुडे़ 352 मामले प्रकाश में आए थे, उसके बाद पिछले साल घटनाओं की संख्या घटकर 209 रह गई.

देश में कल्याणकारी योजनाओं से जुड़ी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिन लोगों के लिए ये बनाई गई हैं उन तक इनकी सही जानकारी आज तक नहीं पहुंची. दलितों से जुड़ी योजनाओं के मामले में भी ऐसा ही है. अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निरोधक) कानून के मुताबिक दलित व्यक्ति के खिलाफ हुए किसी भी अपराध के लिए उसे 10,000 से लेकर 1 लाख तक मुआवजा दिया जाना चाहिए. मुआवजा हासिल करने के लिए जो दलित अर्जी दाखिल करते हैं उनमें से कुछ  को ही यह मिल पाता है,

Sunday, March 22, 2009

कामयाबी की राह में अब देहरी नहीं दीवार




देवेंद्र सिंह, ग्रेटर नोएडा गांव सादुल्लापुर की बेटियों के लिए कामयाबी की राह में घर की देहरी अब दीवार नहीं बनती। तभी तो यहां की नौ लड़कियां दिल्ली पुलिस में नाम रोशन कर रही हैं। उनकी प्रेरणास्रोत हैं अंतरराष्ट्रीय पहलवान और दिल्ली पुलिस की कांस्टेबल बबिता नागर। ग्रेटर नोएडा के इस गांव के बुजुर्ग जगन कहते हैं-खुशी की बात है कि गांव की लड़कियां अब पढ़ने लगी हैं। न केवल शिक्षा में उनका रुझान बढ़ा है, बल्कि गांव से बाहर निकलने और नौकरी करने की हिम्मत भी दिखाई है। दिल्ली से लगे होने के बावजूद बबिता से पहले गांव में किसी को सरकारी नौकरी नहीं मिली थी। रूढि़वादी परंपराओं के बीच पली-बढ़ी बबिता आज गांव के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। भले ही अब बबिता अंतरराष्ट्रीय पहलवान के रूप में पहचानी जाती हों। लेकिन आठ साल पहले परिस्थितियां उनके अनुकूल नहीं थीं। पढ़ाई के साथ कुश्ती शुरू की तो आलोचना का शिकार हुई। घर से निकलना मुश्किल था। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बकौल बबिता उन्होंने हमेशा निंदा को चुनौती माना। पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी से प्रेरित होकर दिल्ली पुलिस में जाने का निर्णय लिया। उनका निश्चय था कि वह अन्य लड़कियों के लिए प्रेरणा बनेंगी। वर्ष 2001 में दिल्ली महिला पुलिस में भर्ती की परीक्षा पास की। फिर दक्षिण अफ्रीका में आयोजित अंडर-19 कुश्ती प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर नया मुकाम हासिल किया। अब सारे गांव को बबिता पर गर्व है। शायद ऐसे ही लोगों के लिए हरिवंशचय बच्चन लिख गए कि लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती..। गांव की लड़कियां उन्हीं के पदचिह्नों पर चल पड़ी हैं। वर्ष 2008 में गांव की छह अन्य लड़कियां दिल्ली पुलिस में चुनी गई। इनमें एक विवाहित भी है। पुलिस में अपना करियर बनाने पर अब लड़कियों की आलोचना नहीं हुई, बल्कि ग्रामीणों से सम्मान मिल रहा है। इनमें अमृता नागर संुदरी नागर, पूनम, शीतल और सविता का कहना है कि बबिता को देखकर उनच्ी इच्छाशक्ति मजबूत हुई। सविता कहती हैं- यह गांव की बदली हवा का असर ही है जो परिवार का सहयोग मिल सका।


Wednesday, March 18, 2009

मत हैं पूरे, पर घटती गई सत्ता में हिस्सेदारी


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को मजबूत बनाने में भले ही महिलाओं की भूमिका पुरुषों के लगभग बराबर पंहुच गई हो, लेकिन संसद की राह उनके लिए पहले से भी ज्यादा कठिन होती जा रही है। करियर के तमाम क्षेत्रों में बुलंदी के बावजूद लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरने वाली महिलाओं के हारने की दर लगातार (एक अपवाद को छोड़) बढ़ी है। अलबत्ता संख्या के लिहाज से भी संसद में उनके प्रतिनिधित्व में मामूली कमी-बेशी का सिलसिला बरकरार है।
भारतीय राजनीति में महिलाओं की निर्णायक भूमिका का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में लगभग 37 करोड़ पुरुष मतदाताओं के साथ ही लगभग 34 करोड़ महिला मतदाताओं के हाथ में लोकतंत्र को मजबूत करने की चाबी होगी।
आंध्र प्रदेश, केरल समेत पांच राज्यों में तो स्थिति उलट भी है, जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज्यादा है। बावजूद इसके तस्वीर का दूसरा पहलू कुछ और ही कहानी बयां करता है। आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के बाद दूसरी लोकसभा के लिए 1957 में 494 सीटों पर हुए चुनाव में 45 महिला प्रत्याशी थीं, जिनमें 22 (48.89 प्रतिशत) जीत कर लोकसभा पंहुची थीं। उसके बाद हर लोकसभा चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या तो लगातार बढ़ती गई, लेकिन उनके जीतने की दर लगातार घटती गई। सबसे बदतर स्थिति 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में हुई। चुनाव में 599 महिलाओं ने किस्मत आजमाई थी पर 40 (6.68 प्रतिशत) ही संसद का मुंह देख सकीं। हालांकि 1998 के चुनाव में यह दर बढ़ कर 15.69 प्रतिशत व 1999 में 17.25 (49 सांसद) प्रतिशत तक पंहुची 2004 में 355 महिला प्रत्याशी मैदान में थीं और उनमें से सिर्फ 45 (12.67 प्रतिशत) ही जीती। हालांकि भारतीय लोकतंत्र के जवान होने के साथ ही संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी बढ़ता-घटता रहा है।

Monday, March 9, 2009

महिलाओं को राष्ट्रपति की

महिलाओं को राष्ट्रपति की

विशेष संवाददाता ।। नई दिल्ली देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने रविवार को महिला दिवस पर एक
नई पहल करते हुए आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं को राष्ट्रपति भवन में बिठाकर उनके दुख-सुख सुने। राष्ट्रपति ने महिलाओं को मजबूती से डटे रहने का हौसला देते हुए कहा कि 'जहां चाह है, वहीं राह है।' पहली बार राष्ट्रपति भवन आईं महिलाएं अभिभूत हो गईं। उन्होंने कहा कि यह महिला दिवस हमारे जीवन का सबसे यादगार दिन रहेगा। राष्ट्रपति ने कहा कि देश की समृद्धि में महिलाओं का भी आधा हिस्सा है। आजादी की लड़ाई में महिलाएं पीछे नहीं रहीं। मगर उन्हें शिक्षा और अवसर नहीं मिले, जिससे वे कमजोर हो गईं। जब तक महिलाएं आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर रहेंगी, उन्हें निर्णय लेने का अधिकार नहीं मिलेगा। लेकिन जैसे ही वे काम करके कुछ कमाने लगती हैं, घर में सुनने को मिलता है- 'इनकी बात में दम है।' ज्यादातर झुग्गी-झोंपडि़यों से आई महिलाओं के बीच पाटिल ने मजाक-मजाक में कई गंभीर बातें भी कहीं। उन्होंने कहा कि महिलाएं जब कमाती हैं तो अपना पैसा घर में खर्च करती हैं। लेकिन पुरुषों का बड़ा हिस्सा अपनी कमाई दारू में उड़ा देता है। इस पर महिलाएं खूब हंसीं। राष्ट्रपति ने कहा कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए अपने अंदर आत्मविश्वास जगाना होगा। महिलाएं दूसरों को दुख देने में दुर्बल हो सकती हैं, मगर दुख झेलने में बहुत मजबूत हैं। केन्द्र सरकार की महिला सशक्तीकरण योजनाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि सेल्फ हेल्प ग्रुप महिलाओं के आर्थिक उत्थान में बहुत सहायक हो सकते हैं। महिलाओं ने राष्ट्रपति को अपने अनुभव सुनाए। महिलाओं ने शिक्षा, परिवार द्वारा घर से बाहर निकलने में लगाई जाने वाली पाबंदियों, कन्या भ्रूण हत्या जैसे मुद्दों को उठाया। एक महिला कमलेश ने बताया कि मैं अनपढ़ थी। शादी और बच्चे होने के बावजूद मैंने पढ़ाई की और आज मैं अपनी बहनों को पढ़ा रही हूं। इस मौके पर विभिन्न मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे, जो महिलाओं को आथिर्क और तकनीकी मदद देने के साथ उनके कार्य कौशल बढ़ाने में मदद करेंगे।