Wednesday, March 18, 2009

मत हैं पूरे, पर घटती गई सत्ता में हिस्सेदारी


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को मजबूत बनाने में भले ही महिलाओं की भूमिका पुरुषों के लगभग बराबर पंहुच गई हो, लेकिन संसद की राह उनके लिए पहले से भी ज्यादा कठिन होती जा रही है। करियर के तमाम क्षेत्रों में बुलंदी के बावजूद लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरने वाली महिलाओं के हारने की दर लगातार (एक अपवाद को छोड़) बढ़ी है। अलबत्ता संख्या के लिहाज से भी संसद में उनके प्रतिनिधित्व में मामूली कमी-बेशी का सिलसिला बरकरार है।
भारतीय राजनीति में महिलाओं की निर्णायक भूमिका का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में लगभग 37 करोड़ पुरुष मतदाताओं के साथ ही लगभग 34 करोड़ महिला मतदाताओं के हाथ में लोकतंत्र को मजबूत करने की चाबी होगी।
आंध्र प्रदेश, केरल समेत पांच राज्यों में तो स्थिति उलट भी है, जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज्यादा है। बावजूद इसके तस्वीर का दूसरा पहलू कुछ और ही कहानी बयां करता है। आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के बाद दूसरी लोकसभा के लिए 1957 में 494 सीटों पर हुए चुनाव में 45 महिला प्रत्याशी थीं, जिनमें 22 (48.89 प्रतिशत) जीत कर लोकसभा पंहुची थीं। उसके बाद हर लोकसभा चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या तो लगातार बढ़ती गई, लेकिन उनके जीतने की दर लगातार घटती गई। सबसे बदतर स्थिति 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में हुई। चुनाव में 599 महिलाओं ने किस्मत आजमाई थी पर 40 (6.68 प्रतिशत) ही संसद का मुंह देख सकीं। हालांकि 1998 के चुनाव में यह दर बढ़ कर 15.69 प्रतिशत व 1999 में 17.25 (49 सांसद) प्रतिशत तक पंहुची 2004 में 355 महिला प्रत्याशी मैदान में थीं और उनमें से सिर्फ 45 (12.67 प्रतिशत) ही जीती। हालांकि भारतीय लोकतंत्र के जवान होने के साथ ही संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी बढ़ता-घटता रहा है।

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